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दु:ख(Sorrow)

"प्रतिकूल वेदनीयं दु:खम्।"
जो आत्मा को प्रतिकूल है। मन के विरूद्ध है, जो हमें अच्छा नहीं लगता। आत्मा/ जीव जिसे नहीं चाहता। आत्मा का स्वभाव जो नहीं है। जिसे हम स्वीकार नहीं करते। वह दुःख है।

DukhKyaHai

दु:ख क्या है? (What is sadness?)

🌷बाधनालक्षणं दु:खम्। (न्याय दर्शन १/१/२१)  
जो हमें बाधा,पीडा या ताप होता है। वह दुःख है। यद्यपि पुण्य कर्मों के फल स्वरुप मनुष्य जन्म प्राप्त होता है और पाप कर्मों के फल स्वरुप पशु-पक्षी आदि का जन्म होता है। इसी कारण से मनुष्य जन्म में सुख अधिक और पशु, पक्षी आदि के जन्म में दु:ख अधिक मिलता है। इसका यही प्रमाण है कि चाहे कितना ही धनहीन या साधनहीन मनुष्य हो वह कुत्ता, घोड़ा, मछली, मगरमच्छ, सूअर आदि पशु शरीर को कभी भी प्राप्त करना नहीं चाहता। उसे साधनहीन होते हुए भी पशु शरीर की अपेक्षा मनुष्य शरीर में ही अधिक सुख दिखाई देता है। परंतु मनुष्य शरीर प्राप्त कर लेने पर भी दु:खों से पूरी तरह से नहीं छूट पाता। मनुष्य को पशु-पक्षी आदि की अपेक्षा तो कम दु:ख भोगना पड़ता है, परंतु कोई न कोई दु:ख तो लगा ही रहता है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति किसी वस्तु को प्राप्त करना चाहता है। जब वह वस्तु उसे प्राप्त नहीं होती तो उसे दु:ख होता है। उस वस्तु की प्राप्ति के लिए जो परिश्रम करना पड़ता है उसमें भी दु:ख होता है। बहुत परिश्रम करने पर भी वह वस्तु बहुत थोड़ी मात्रा में मिले तो दु:ख होता है। और जितनी मात्रा में मिल जाती है यदि उसे कोई दूसरा व्यक्ति छीन ले या वह छूट जाए तो भी दु:ख होता है। व्यक्ति रोगी नहीं होना चाहता परंतु रोगी हो जाता है तो दु:ख होता है। व्यक्ति अपने परिवार आदि की वृद्धि देखना चाहता है और जब संतान प्राप्त नहीं होती तो निसंतान को दु:ख होता है। यदि संतान हो जाए और विकलांग हो या कुसंस्कारी हो तो दु:ख होता है। पूरे अंगों वाली हो और यदि स्वस्थ भी हो और आज्ञाकारी न हो तो भी दु:ख होता है। इस प्रकार से मनुष्य जन्म पाकर भी अनेक प्रकार के दु:ख भोगने ही पड़ते हैं। इस संसार में रहते हुए प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति उपयुक्त दु:खों का अनुभव कर सकते है। इन सब दु:खों से पूरी तरह से छूट जाने और ईश्वर के परम आनंद को प्राप्त करने का नाम ही मुक्ति है। जैसा कि पहले कहा है इस मुक्ति को प्राप्त करने की प्रक्रिया ही इस सूत्र में बताई गई है। कारण के हट जाने पर कार्य भी हट जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार दु:ख का कारण है जन्म और जन्म का कारण है प्रवृत्ति, प्रवृत्ति का कारण दोष और दोष का कारण है मिथ्या ज्ञान। मिथ्याज्ञान को हटा देने से मोक्ष प्राप्ति संभव है। इसीलिए महर्षि कपिल ने भी सांख्य दर्शन में कहा है "ज्ञानान्मुक्ति"। तत्वज्ञान के होने पर मिथ्याज्ञान हट जाता है। इसके अतिरिक्त दु:खों से छूटने का कोई उपाय नहीं है।

🌷नान्य पन्था: विद्यते अयनाय।

आत्मा के स्वभाव के प्रतिकूल जो हमें ताप/ कष्ट का अनुभव होता है वह दुःख है। जिसे कोई भी नहीं चाहता। जिससे सब छूट जाना चाहते हैं वह दुःख है।

DukhkaKaran

दु:ख का कारण क्या है? (What is the cause of suffering?)

दुःख का कारण है अविद्या।

🌷दुःखजन्मप्रवृत्तिदोष मिथ्याज्ञानानां उत्तरोत्तरापाये तदन्तरापायाद् अपवर्ग:।( न्याय दर्शन)

महर्षि गौतम के इस सूत्र के अनुसार दुःख का कारण है जन्म, जन्म हुआ है तो दुःख भोगने पड़ेंगे। सुख-दुःख भोगने व मुक्ति के लिए ही जन्म होता है। दुःख का कारण जन्म तो जन्म का कारण क्या है? जन्म का कारण है प्रवृत्ति, भोग कर्मों में प्रवृत्ति या सकाम कर्म। जो कर्म सांसारिक फल अर्थात धन, सम्मान, भोग के साधन आदि को लक्ष्य बनाकर पाप-पुण्य के रूप में किए जाते हैं। उन्हें सकाम कर्म कहते हैं। उसी का नाम है प्रवृत्ति। निष्काम कर्म उसे कहते हैं जो कर्म ईश्वर प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर पुण्य के रूप में किया जाए। कोई भी पाप निष्काम कर्म नहीं कहलाता। इसमें केवल पुण्य कर्म ही आते हैं। अब जो पाप-पुण्य रुपी सकाम कर्म है वह अनेक प्रकार के हैं। ऐसे कर्म मन, वाणी और शरीर से किए जाते हैं।

शरीर से किए जाने वाले तीन अशुभ कर्म-
हिंसा करना, चोरी करना और व्यभिचार करना।

वाणी से किए जाने वाले चार अशुभ कर्म-
झूठ बोलना, कठोर बोलना, निंदा चुगली करना और वाणी का व्यर्थ प्रयोग करना, बिना प्रसंग या आवश्यकता के ही बोलना।

मन से किए जाने वाले तीन अशुभ कर्म -
दूसरों के प्रति मन में बुरी भावनाएँ रखना, दूसरों की वस्तुओं को प्राप्त करके उन्हें अपना बनाने की इच्छा करना और नास्तिकता अर्थात ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, कर्मफल व्यवस्था आदि पर विश्वास न करना यह सब अशुभ कर्म है।


इसके विपरीत शरीर से तीन कर्म जो शुभ है-
दान देना, दूसरों की रक्षा करना और दूसरों की सेवा करना।

वाणी से चार शुभ कर्म -
सत्य बोलना, हितकारी बोलना, मीठा बोलना तथा वेद आदि सत्य शास्त्रों का स्वाध्याय करना, पढ़ना-पढ़ाना।

मन से किए जाने वाले तीन शुभ कर्म-
दूसरों के प्रति दया की भावना रखना, दूसरों की वस्तुएँ लेने की इच्छा न करना, बल्कि अपने परिश्रम से धन आदि कमाने की इच्छा करना और वह भी उतनी मात्रा में जितनी आवश्यकता हो, इससे अधिक की इच्छा न करना और आस्तिकता अर्थात ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, कर्मफल आदि में श्रद्धा, विश्वास रखना।


यह सब कर्म जब सांसारिक फल को लक्ष्य बनाकर किए जाते हैं तो सकाम कर्म कहलाते हैं। जब राग-द्वेष आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं तो सकाम कर्म कहलाते हैं। इन्हीं को प्रवृत्ति नाम दिया गया है। जब राग-द्वेष आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं तो उन दोषों के कारण से यह प्रवृत्ति भी कार्य के रूप में उत्पन्न हो जाती है। और जब यह कारण रूपी प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है तो इसका कार्य रूपी फल, जन्म भी हो जाता है। जो कि सूत्र में दूसरे स्थान पर कहा गया है।


अब प्रवृत्ति का कारण है दोष। जिसके संबंध में महर्षि गौतम जी ने कहा है दोष वह है जो व्यक्ति को अच्छे-बुरे कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं। वह राग, द्वेष, मोह इन से प्रेरित होकर व्यक्ति अच्छे-बुरे कर्म करता है। इन दोषों का कारण है मिथ्याज्ञान। मिथ्याज्ञान के कारण से राग-द्वेष आदि दोष उत्पन्न होते हैं।


जो वस्तुएँ मिथ्याज्ञान के कारण से व्यक्ति को अपने अनुकूल दिखाई देती है उनमें तो राग उत्पन्न हो जाता है और जो अपने प्रतिकूल दिखाई देती है उनमें द्वेष उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार से मिथ्याज्ञान, कारण और दोष कार्य कहलाते हैं, इनसे ही प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, प्रवृत्ति से जन्म होता है और जन्म होता है तो दु:ख भी होता है। इसलिए सब के मूल में है मिथ्याज्ञान या अविद्या।


यदि मिथ्याज्ञान न हो तो दोष भी नहीं होंगे, प्रवृत्ति भी नहीं होगी, जन्म भी नहीं होगा और जन्म नहीं होगा तो दु:ख नहीं होगा। मुक्ति होगी ईश्वर के आनंद में दुःखमुक्त रहेंगे।

DukhokaVargikaran

दु:खों का वर्गीकरण (Classification of sorrows)

समस्त दु:खों को आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक तीन वर्गों में बांटा जा सकता है।

आध्यात्मिक दु:ख - जो दु:ख अपने आंतरिक कारणों से उत्पन्न होता है वह आध्यात्मिक दु:ख है। जिसमें हम स्वयं दोषी हैं हमारी अज्ञानता अविद्या के कारण, आलस्य, लापरवाही के कारण जो दु:ख आते हैं वे आध्यात्मिक दु:ख हैं। यह दो प्रकार के होते हैं एक शरीर दुःख व दूसरा मानस दुःख। शरीर के वात, पित्त, कफ आदि की विषमता से अथवा आहार-विहार की विषमता से जो दु:ख उत्पन्न होता है उसे आध्यात्मिक शारीर दु:ख कहते हैं तथा जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, मनोविकार आदि के कारण दु:ख उत्पन्न होता है वह आध्यात्मिक मानस दु:ख कहलाता है।

आधिभौतिक दु:ख - जो दु:ख अन्य प्राणियों के द्वारा या अन्य मनुष्यों के द्वारा हमें प्राप्त होता है उसे आधिभौतिक दु:ख कहते हैं। जैसे साँप, बिच्छू आदि के काटने से, अन्य हिंसक प्राणियों के आघात से, किसी वायरस, कोरोना आदि के कारण, किसी के मारने-पीटने अथवा किसी के कटु वाक्य से हमें पीड़ा होती है, वह आधिभौतिक दु:ख है।

आधिदैविक दु:ख -  जो दु:ख वर्षा, धूप, बर्फबारी, बिजलीपात, भूकंप, आंधी, तूफान, ओले, वायु आदि के उत्पात से होता है। सुनामी, अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि से होने वाला दु:ख आधिदैविक दु:ख कहलाता है।

इन दु:खों से पूरी तरह छूट जाने का नाम ही मुक्ति/ मोक्ष है।

दु:खों के प्रकार (Types of suffering)

योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि के अनुसार दु:ख चार प्रकार के होते हैं-

परिणाम दुःख, ताप दुःख, संस्कार दुःख तथा गुणवृत्ति विरोध दुःख।

परिणाम दु:ख - कोई मनुष्य अपनी इंद्रियों द्वारा जब रूप, रस, शब्द, स्पर्श आदि का सेवन करके कुछ समय के लिए थोड़ी सी तृप्ति जैसा अनुभव करता है तो वह भौतिक सुख कहलाता है और इंद्रियों की चंचलता के कारण कुछ अशांति सी अनुभव करता है तो वह दुःख कहलाता है। व्यक्ति यह सोचता है कि मैं इंद्रियों से इन भोगों को भोग-भोग कर अपनी इच्छाओं को शांत कर लूंगा, परंतु ऐसा होता नहीं है। बल्कि ऐसा कहना चाहिए कि भोगों को बार-बार भोग कर इच्छाओं को शांत कर देना असंभव है। कारण यह है कि भोगों को भोगने पर उस वस्तु से जो सुख प्राप्त होता है उस सुख में व्यक्ति का राग बढ़ जाता है, अटैचमेंट या आसक्ति बढ़ जाती है तथा इंद्रियों की भोगने की शक्ति भी बढ़ जाती है। परंतु इच्छा कुछ देर के लिए तो शांत हो जाती है, किंतु पूर्ण रूप से शांत नहीं हो पाती। इसका कारण यह रहता है कि इंद्रियों का भोगों को भोगने का सामर्थ सीमित है। कुछ देर तक किसी भोग को भोगते रहने पर उस इंद्रिय का सामर्थ समाप्त हो जाता है, परंतु मन की, आत्मा की इच्छा पूरी नहीं हो पाती। व्यक्ति और भोगना चाहता है। इंद्रियों का सामर्थ समाप्त हो जाने से वह भोग नहीं पाता, परिणाम स्वरुप उस व्यक्ति को दु:ख होता है। यह दुःख, भोगों को भोगने के परिणाम के रूप में होता है। इसलिए इसे परिणाम दु:ख कहते हैं। सुख का उपाय भोगो का अभ्यास करना नहीं, बल्कि योग का अभ्यास करना है।
महर्षि व्यास जी ने कहा है
🌷तस्मादनुपाय: सुखस्य भोगाभ्यास इति।
सुख का उपाय भोगाभ्यास नहीं है।

ताप दुःख - भोजन, वस्त्र, मकान, यान आदि जड़ पदार्थों तथा पुत्र, परिवार आदि चेतन प्राणियों से मनुष्य सुख प्राप्त करता है। जब कोई व्यक्ति इन जड़-चेतन पदार्थों से प्राप्त होने वाले सुख में बाधा डालता है, तो उस सुख को भोगने वाले व्यक्ति को दु:ख का अनुभव होता है। यह दुःख बाधा डालने के बाद होता है और यदि बाधा डालने से पहले ही पता चल जाए कि अमुक व्यक्ति मेरे सुख में बाधा डालेगा तो बाधा डालने से पहले भी दु:ख होता है। चाहे वह व्यक्ति बाद में बाधा डाले या ना डालें, लेकिन यदि हमने पहले से ही कल्पना कर ली है कि यह मेरे सुख में, मेरे मार्ग में बाधा डालेगा तो पहले से ही दु:ख होना शुरू हो जाएगा। इसी का नाम ताप दुःख है।
इसको आप इस तरह समझ सकते हैं कि हमारा पड़ोसी हमसे कोई यंत्र या गाड़ी माँगने आना चाहता है। हम उसे वह यंत्र देना नहीं चाहते।जब हमें पता चलेगा कि कल वह हमसे गाड़ी माँगने आएगा तो हमें सूचना मिलते ही दुःख होना आरंभ हो जाएगा। क्यों? क्योंकि हम उसको वह देना नहीं चाहते। यदि वह अगले दिन माँगने आ ही जाए और पड़ोसी होने के नाते से हमें अपना कोई यंत्र इच्छा न होते भी उसे देना ही पड़े तो और दु:ख होगा और यह तब तक होता रहेगा जब तक कि वह यंत्र हमारे पास सुरक्षित लौटकर नहीं आए। साथ ही यह भी मन में भय रहेगा कि कहीं पड़ोसी हमारी मशीन को खराब ना कर दे, इसी का नाम ताप दुःख है । इसी प्रकार से कोई अन्य कीमती वस्तु, कपड़े, टार्च, वाहन आदि माँगने पर होने वाले दुःख के उदाहरण भी समझे जा सकते हैं। यदि हम कपड़े के व्यापारी हैं और हमारे बाजार में एक नई दुकान कपड़े की खुलने वाली है तो उससे हमारे व्यापार में धन की कमी होगी ऐसा सोचने से हमें दु:ख होगा वह भी ताप दुःख है।

संस्कार दुःख - जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु से सुख भोगता है तो मन पर सुख के संस्कार पड़ जाते हैं। यही संस्कार कुछ समय के पश्चात उस व्यक्ति को पूर्व भोगे हुए सुख की ओर उन्हें प्रेरित करते हैं। परंतु जब किन्ही कारणों से उस सुख की प्राप्ति नहीं हो पाती तो व्यक्ति दु:ख का अनुभव करता है। यह दु:ख संस्कारों के कारण से होता है। इसलिए इसे संस्कार दु:ख कहते हैं। इसी प्रकार से जब व्यक्ति किसी वस्तु से दु:ख प्राप्त करता है तो मन पर दु:ख के संस्कार पड़ जाते हैं। जब वह दु:खदाई वस्तु पुनः सामने उपस्थित होती है अथवा वह व्यक्ति उस दु:खदाई वस्तु का स्मरण करता है तो वही दु:ख के संस्कार पुनः दु:ख को उत्पन्न कर देते हैं। यह दु:ख भी संस्कारों के कारण से होता है। अतः इसे भी संस्कार दु:ख कहते हैं।
इसे आप ऐसा समझ सकते हैं कि जैसे पूर्व में किसी ने हमारा अपमान किया तो उस बात को याद कर-कर के भविष्य में भी हम उन संस्कारों के कारण से दु:खी हो सकते हैं। यदि स्कूल या मौज-मस्ती के समय की बातें हम बाद में दुःख के समय याद करते हैं तो उन अच्छी बातों को सोच-सोच कर के भी दु:खी हो सकते हैं कि मैं पहले ऐसे-ऐसे करता था आज यह क्या हो गया कैसा समय है?
पूर्व स्मृतियों के आधार पर दु:ख भी आता है और सुख भी आता है।


गुणवृत्ति विरोध दुःख - योग दर्शन के व्यास भाष्य के अनुसार गुण का अर्थ है सत्व, रज और तम। तीन मूलकण है जिसके समुदाय का नाम है प्रकृति। वृत्ति का अर्थ है स्वभाव।
तो गुणवृत्ति विरोध दुःख का स्वरूप - प्रकृति से उत्पन्न सभी पदार्थ त्रिगुणात्मक है। मन भी त्रिगुणात्मक है। इन तीनों गुणों की वृत्तियाँ अर्थात स्वभाव में परस्पर विरोध होता है। सत्व गुण सुख को उत्पन्न करता है, रजोगुण दुःख को उत्पन्न करता है और तमोगुण मिथ्याज्ञान को उत्पन्न करता है। इसी प्रकार से सत्व धार्मिक प्रवृत्तियाँ, न्याय, दया, परोपकार, कर्तव्य पालन आदि को उत्पन्न करता है और रजोगुण अधर्म, पक्षपात, हिंसा, चोरी, स्वार्थ आदि को उत्पन्न करता है। चित्त में स्थित इन गुणों का प्रभाव आत्मा पर पड़ता है। इन गुणों का कार्य करना चंचलता से युक्त है। इनका चंचलता से युक्त होने पर चित्त में स्थित इन गुणों के प्रभाव में भी परिवर्तन होता रहता है। जब कभी व्यक्ति सत्व के प्रभाव से परोपकार, दया, न्याय, धर्म आदि से युक्त होता है तो वह सुख का अनुभव करता है। परंतु किसी कारणवश रजोगुण या तमोगुण के प्रभाव से उसकी यह स्थिति छूट जाती है और वह पक्षपात, हिंसा, चोरी आदि के विचारों से युक्त हो जाता है तो उसे दु:ख होना आरंभ हो जाता है। यह दु:ख इन गुणों की वृत्तियों के परस्पर विरुद्ध होने से होता है। इसलिए इसे गुणवृत्ति विरोध दु:ख कहते हैं।
इसे इस आधार पर समझना चाहिए कि जैसे कोई व्यक्ति जानता है कि चोरी नहीं करनी चाहिए। मेहनत से काम करके खाना अच्छा है। फिर रजोगुण के प्रभाव से मन में एक विरुद्ध विचार उत्पन्न हुआ कि एक बार चोरी कर लो, एक बार में क्या प्रभाव पड़ता है, फिर आगे नहीं करेंगे अब इन दोनों वृतियों में परस्पर विरोध होने से युद्ध चलता है। ज्ञान तो कहता है कि नहीं करना है। रजो गुण के कारण विचार आ रहा है कि सब कर रहे हैं मैंने कौन सा इतना बड़ा अपराध कर दिया। तो इस युद्ध के परिणाम स्वरूप व्यक्ति व्याकुल और दु:खी हो जाता है, क्योंकि यह दुःख सत्व गुण और रजोगुण की वृत्तियों में परस्पर टकराव के कारण होता है। इसीलिए इसको गुण वृत्ति विरोध दुःख कहा गया है।

इसी प्रकार से कोई बालक स्कूल के बाद अब घर चलना चाहिए ऐसा सोचता है, तो तभी रजोगुण बढ़ जाता है और दूसरे विद्यार्थियों को देखकर सोचता है कि घर तो रोज समय पर ही जाते हैं आज तो सिनेमा देखने चलेंगे कुछ देर से ही घर पहुँच जाएंगे। अब मन में जो विचार आ रहे हैं सत्व गुण के कारण कह रहे हैं कि घर पर जाना चाहिए और रजोगुण के कारण विचार आ रहे हैं कि नहीं, सिनेमा चलना चाहिए कुछ देर बाद पहुँच जाएंगे। इन दोनों वृत्तियों में युद्ध चलता है और चित्त की व्याकुलता बढ़ जाती है। ऐसा ही सर्वत्र समझ लेना चाहिए।
इस प्रकार यहां चार प्रकार के दु:खों का वर्णन किया।

DukhokePrakar
DukhmuktiSukhpraptikeUpay

दु:ख मुक्ति व सुख प्राप्ति के लिए उपाय (Remedies to get rid of sorrow and get happiness)

ज्ञान के बिना दुःख से मुक्ति संभव नहीं है।
अष्टांग योग का पालन करना, वेदों में या ऋषियों द्वारा बताए गए मार्ग पर चलकर, ईश्वर, जीव, प्रकृति का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करके, शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म, शुद्ध उपासना पूर्वक ईश्वर साक्षात्कार करना यह दुःख मुक्ति का एकमात्र उपाय है। जिससे ईश्वरीय आंनद प्राप्ति का साधन माना गया है। वह वेदादि मोक्ष शास्त्रो का अनुकरण करके योग, सांख्य आदि को श्रद्धापूर्वक जीवन में लाने से दुःखो से मुक्ति होती है।

दुःख हटाने व सुख प्राप्ति के लिए यह वीडियो आप देख, समझ सकते हैं और उसे व्यवहार में अनुकरण करके किसी भी क्षेत्र में सफल हो सकते हैं।

BhautikSukhDukhMisrit

सभी भौतिक सुख ही दु:ख मिश्रित है! क्यों? (All materialistic happiness is only misery mixed! Why?)

सभी भौतिक सुख दुःख मिश्रित होते हैं, क्योंकि त्रिगुणात्मक प्रकृति से आने वाली वस्तु रजोगुण और तमोगुण प्रधान भी होती है, जिससे मन की चंचलता व जडता होने पर दुःख भी साथ-साथ आता है। महर्षि कपिल जी ने सांख्य दर्शन में कहा है "कुत्रापि को अपि सुखी न" अर्थात संसार में पूर्ण रूप से कोई भी कहीं पर सुखी नहीं है। फिर भी सत्वगुण की प्रधानता में सुख शांति अधिक होती है।

KarmajRog

कर्मज दुःख (karmaj sorrow)

प्रारब्ध से जो दुःख आता है। पूर्व जन्म के कर्म के फलस्वरूप इस जन्म में भी दुःख आते हैं वे ही कर्मज दुःख है।

सहन शक्ति बढ़ाने के उपाय (Ways to increase stamina)

सहनशक्ति बढ़ाने के लिए इस प्रकार से विचार करें।

दु:ख आने से कौन से लाभ हो रहे हैं! यदि यह दु:ख न होता तो कितनी बड़ी हानि होती ?

जो औषधि मनुष्य के रोग निवृत्ति का साधन हो चाहे वह कितनी भी कड़वी क्यों न हो उसे बुरी कौन कहता है? और उससे घृणा कौन करता है? वह तो सुख रूप हैं तथा उस औषधि के प्रदाता को कौन बुरा कह सकता है? अतः एक ज्ञानी व विवेकी पुरुष के लिए दु:ख वास्तव में सुखरूप ही है। दु:ख या कठिनाई के बिना किसी प्रकार की उन्नति,विस्तार और परिवर्तन नहीं हो सकता। यदि दु:ख न होता तो संसार एक ही अवस्था में स्थिर रहता और मनुष्य जाति थकान, आलस्य से पीड़ित होकर नष्ट हो जाती।


जब कोई विघ्न या कष्ट सम्मुख उपस्थित हो तो मनुष्य को प्रसन्न होना चाहिए क्योंकि विघ्न, कष्ट और कठिनाई के उपस्थित होने का अर्थ यह है कि मनुष्य मूर्खता और उदासीनता की किसी विशेष सीमा तक पहुँच गया है और अब उस रुकावट से उसे अपने आप को अलग करने के लिए ओर सन्मार्ग ढूंढने के लिए अपने विशेष प्रयत्न और विशेष बुद्धि का प्रयोग करना पड़ेगा। ऐसा समझना चाहिए कि मानो अब उसकी आभ्यन्तर शक्तियाँ स्वतंत्रता, अभ्यास तथा बुद्धिमत्ता के अवसर के लिए पुकारने लगी है।

कोई भी स्थिति या अवस्था, स्वयं कोई कठिनाई या दु:ख नहीं है। उस अवस्था के आंतरिक मर्म को समझने की और उसके साथ जो व्यवहार किया जाता है उसको समझने की न्यूनता का नाम कठिनाई, विघ्न या दु:ख है। बस समझ का फेर है। इसलिए संकट या दु:ख से असंख्य लाभ होते हैं और जिस कारण का कार्य उन्नति कराता है व असंख्य लाभ देता है वह तो सुख का ही एक रूप है। इसलिए ज्ञानी व्यक्ति दु:ख आने पर घबराता नहीं, कष्ट नहीं मनाता अपितु बुद्धिमत्ता का अवसर जानकर हर्षित होता है।


दु:ख आने से जो लाभ होते हैं वह असंख्य हैं उनकी कोई गणना नहीं है लेकिन हम यहाँ पर कुछ मुख्य लाभ जो सभी को दिखते हैं वे प्रस्तुत करते हैं- 

  1. दु:ख आने से सबसे बड़ा लाभ तो यह होता है कि व्यक्ति ईश्वर की ओर उन्मुख हो जाता है। यदि दु:ख न आए तो ईश्वर को तो दूनिया पूरी तरह भुला ही देगी।

  2. दु:ख आने से संसार से वैराग्य आता है जो मुक्ति के लिए अत्यंत आवश्यक है। यदि दु:ख न आए तो संसार में ही आसक्ति रहेगी, व्यक्ति भोगों में ही फँसा रहेगा।

  3. दु:ख आने से व्यक्ति धार्मिक होने लगता है क्योंकि दु:खी या रोगी व्यक्ति अधर्म की बातें नहीं सोचता, धर्म के बारे में सोचता है यदि मैं ठीक हो गया तो अमुक-अमुक अच्छा कार्य करूंगा। ऐसा दु:ख या रोग आने पर ही सोचता है।

  4. दु:ख आने पर एक बहुत बड़ा लाभ यह होता है कि व्यक्ति का अपनी बुराइयों की ओर, अपनी गलतियों की ओर ध्यान जाता है कि मुझसे क्या-क्या दोष हुए हैं या हो रहे हैं।

  5. दु:ख आने से व्यक्ति चिकित्सक बन जाता है। जैसे जिसको शुगर हो जाता है वह कुछ साल बाद शुगर को ठीक करते-करते  उसका स्पेशलिस्ट बन जाता है, जिस व्यक्ति को जेल हो जाती है तारीख पर तारीख जाते-जाते आधा वकील तो वह भी बन जाता है।

  6. दु:ख आने पर व्यक्ति प्रेरक बन जाता है। वह अपने व दूसरे के परिवार को बोलता है कि मैंने यह गलती की है, आप मत करना मैंने यह दु:ख उठाया है, आप इससे बचना। दूसरों को प्रेरणा देता है। 

  7. दु:ख आने पर व्यक्ति ज्ञानी बन जाता है। शायद दु:ख आने पर ही आप सब लोग भी अपनी समस्या के निवारणार्थ विशेषज्ञों से मिले होंगे और आपको गुरूजनों से जुड़कर बहुत सारा शास्त्रों का, वेदों का ज्ञान मिला। यदि आपको दु:ख/समस्या न आयी होती तो शायद हम भी कभी न मिले होते। और हमें आपको योगदर्शन, सांख्य दर्शन आदि भी पढ़ने को न मिला होता।

  8. दु:ख आने का एक लाभ यह भी होता है कि इस संसार में मेरा अपना कौन है? इसका पता चल जाता है। अपने-पराए का भेद दु:ख आने पर ही पता चलता है। सुख में तो फेसबुक के भी 5000 फ्रेंड होते हैं, दु:ख आने पर पता चलता है कि वास्तव में असली मित्र कौन सा है?  यदि यह दु:ख न होता तो यह भी पता ना चलता कि दुनिया में मेरा अपना कौन है? और व्यक्ति हमेशा भ्रांति में ही जीवन गुजार देता।

  9. दु:ख आने पर व्यक्ति धैर्यवान बन जाता है तथा दु:ख दूर करते-करते आत्मविश्वास से भर जाता है, कि हाँ मैंने एक बड़े शत्रु से टक्कर ली है, उसको पराजित किया है, यह बहुत बड़ी उपलब्धि है, लोग तो थोड़ा सा काँटा लगने से भी तड़प उठते हैं, मैंने तो इतने महान दु:ख को झेला है। यह आत्मविश्वास बहुत बड़ी चीज है।

  10. दु:ख आने का एक लाभ यह भी है कि हमारा एक पाप कर्म क्षीण हो जाता है। पाप कर्माशय घट जाता है। हो सकता है यह दु:ख हमारे ही किए गए किसी गलत कर्म का परिणाम था, जो हमने भोग लिया अब आगे नहीं भोगना पड़ेगा। यह सजा तो काटनी ही थी! चलो भविष्य में काटनी पड़ती वर्तमान में ही कार्य निपट गया।

  11. दु:ख आने के बाद ही मनुष्य तपकर शुद्ध सोने की तरह बनता है। यदि दु:ख न आए तो मनुष्य के जीवन में तप करने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा।

  12. दु:ख आने का एक लाभ यह भी होता है कि मनुष्य दूसरों के दु:खों का अनुभव करने लगता है जो अपने पर बीतता है दूसरों के दु:ख को अनुभव भी वही कर पाता है।

  13. दु:ख आने पर व्यक्ति दयालु व परोपकारी बन जाता है। यह क्या छोटी बात है!

  14. दु:ख आने पर व्यक्ति खोजी बन जाता है, वैज्ञानिक बन जाता है, योगी बन जाता है, ईश्वर को प्राप्त कर लेता है।

  15. दु:ख आने पर व्यक्ति सहनशील बन जाता है।

और इतने सारे उपरोक्त लाभ होने पर भी यदि आपको तनिक संदेह है तो सोच लेना कि प्रत्येक दु:ख के पीछे एक सुख छिपा होता है। प्रत्येक रात्रि के पीछे एक सूर्योदय होता है। कोई भी दु:ख हमारे अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ नहीं रह सकता। इसके पीछे हमारा कल्याण छिपा होता है, ईश्वर की दया व न्याय छिपा होता है।

इसलिए दु:खों से कभी घबराना नहीं चाहिए और विचलित नहीं होना चाहिए। यह जीवन एक कुरुक्षेत्र है, युद्ध भूमि है इसमें हमें बलिदान दिए बिना कुछ भी उपलब्धि नहीं हो सकती। यह जीवन एक परीक्षा है और इस परीक्षा में मनुष्य विजयी होता है। 

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